Showing posts with label Kabir-Das-Quotes. Show all posts
Showing posts with label Kabir-Das-Quotes. Show all posts

Friday, 10 October 2014

Beautiful Kabir Das Ji Ke Dohe In Hindi | Kabir Das Quotes

बालपना भोले गया, और जुवा महमंत ।
वृद्धपने आलस गया, चला जरन्ते अन्त ।।
बेटा जाये क्या हुआ, कहा बजावै थाल।
आवन-जावन होय रहा, ज्यों कीड़ी का नाल।।
भूखा-भूखा क्या करे, क्या सुनावे लोग।
भांडा घड़ निज मुख दिया, सोई पूर्ण जोग ।।
जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय।
यह आपा तो डाल दे, दया करे सब कोय।
जब मैं था तब गुरू नहीं, अब गुरू हैं मैं नाय।
प्रेम गली अति सांकरी, ता मे दो न समाय।।
जो जाने जीव न आपना, करहीं जीव का सार।
जीवा ऐसा पाहौना, मिले ना दूजी बार।।
जहां ग्राहक तंह मैं नहीं, जह मैं गाहक नाय।
बिको न यक भरमत फिरे, पकड़ी शब्द की छांय
ज्ञानी को ज्ञानी मिलै, रस की लूटम लूट।
ज्ञानी को आनी मिलै, हौवै माथा कूट।।
तीरथ गये ते एक फल, सन्त मिले फल चार।
सत्गुरू मिले अनेक फल, कहें कबीर विचार।।
तब लग तारा जगमगे, जब लग उगे न सूर।
तब लग जीव जग कर्मवष, ज्यों लग ज्ञान न पूर।।
तेल तिली सौ ऊपजै, सदा तेल को तेल ।
संगति को बेरो भयो, ताते नाम फुलेल ।।
दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार।
तरूवर ज्यों पत्ती झड़े, बहुरि न लागे डार।1।
दाया कौन पर कीजिये, का पर निर्दय होय।
सांई के सब जीव है, कीरी कुंजर दोय।।
नर नारायन रूप है, तू मति समझे देह।
जो समझै ले, खलक पलक में खोह।।
पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय।
ढ़ाई आखर प्रेम का, पढ़ै सो पंड़ित होय।।
पत्ता बोला वृक्ष से, सुनो वृक्ष बनराय।
अब के बिछुड़े ना मिले, दूर पड़ेगे जाय।।
प्रेम भाव एक चाहिए, भेष अनेक बजाय।
चाहे घर में बास कर, चाहे बन मे जाय।।
परबति परबति में फिरया, नैन गंवाए रोइ।
सो बूटी पाऊं नहीं, जातै जीवनि होइ।।
गिरही सुवै साधु को, भाव भक्ति आनन्द ।
कहैं कबीर बैरागी को, निरबानी निरदुन्द।।
गुरू के सनमुख जो रहै, सहै कसौटी दुख ।
कहैं कबीर तो दुख पर वारों, कोटिक सूख ।।
गिरिये परबत सिखर ते, परिये धरिन मंझार।
मूरख मित्र न कीजिये, बूड़ेा काली धार।।
गुरू आज्ञा मानै नहीं, चलै अटपटी चाल।
लोक वेद दोनों गये, आये सिर पर काल।।
गुरू आज्ञा लै आवही, गुरू आज्ञा लै जाय।
कहैं कबीर सो सन्त प्रिय, बहु विधि अमृत पाय।।
गुरूमुख गुरू चितवत रहे, बहु विधि अमृत पाय।
कहै कबीर बिसरे नही, यह गुरू मुख के अंग।।
गुरू समरथ सिर पर खड़े, कहा कभी तोहि दास ।
रिद्धि-सिद्धि सेवा करै, मुक्ति न छोड़े पास।।
गुरू भक्ति अति कठिन है, ज्यों खाड़े की धार।
बिना सांच पहुंचे नहीं, महा कठिन व्यवहार।।
चन्दन जैसा साधु है, सर्पहि सम संसार ।
वाके अग्ड़ लपटा रहे, मन मे नाहिं विकार ।
चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोय।
दुइ पट भीतर आइके, साबित बचा न कोय
छीर रूप सतनाम है, नीर रूप व्यवहार ।
हसं रूप कोई साधु है, सत का छाननहार।।
जहाँ दया तहाँ धर्म है, जहाँ लोभ तहाँ पाप।
जहाँ क्रोध तहाँ पाप है, जहाँ क्षमा तहाँ आप।।
जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय।
यह आपा तो डा़ल दे, दया करे सब कोय
जागन में सोवन करे, साधन में लौ लाय।
सूरत डोर लागी रहे, टूट नाहिं जाय।।
ज्यों तिल मांही तेल है, ज्यों चकमक में आग।
तेरा सांई तुझमें, बस जाग सके तो जाग ।

More Kabir Das Ji Ke Dohe In Hindi | Kabir Das Quotes

वस्तु है ग्राहक नहीं, वस्तु सागर अनमोल।
बिना करम का मानव, फिरैं डांवाडोल ।।
लेना है सो जल्द ले, कही सुनी मान।
कहीं सुनी जुग जुग चली, आवागमन बंधान।।
साईं इतना दीजिये, जा मे कुटुम समाय।मैं भी भूखा न रहूँ, साधु ना भूखा जाय।।
सोवा साधु जगाइए, करे नाम का जाप।
यह तीनों सोते भले, साकित सिंह और सांप।।
सुमिरन में मन लाइए, जैसे नाद कुरंग ।
कहैं कबीर बिसरे नहीं, प्रान तजे तेहि संग।।
सुमरित सुरत जगाय कर, मुख के कछु न बोल।
बहर का पट बन्द कर, अन्दर का पट खोल ।।
भज दीना कहूं और ही, तन साधुन के संग।
कहैं कबीर कारी गजी, कैसे लागे रंग ।।
भूखा भूखा क्या करैं, कहा सुनावै लोग।
भांडा घड़ि जिनि मुख यिका, सोई पूरण जोग।।
भेष देख मत भूलिये, बूझि लीजिये ज्ञान।
बिना कसौटी होत नहीं, कंचन की पहिचान।
भक्ति बिना संकरा, राई दषवें भाय।
मन को मैगल होय रहा, कैसे आवै जाये।।
माला फेरत जुग भला, फिरा न मन का फेर।
कर का मन का डार दें, मन का मनका फेर।।
माटी कहे कुम्हार से, तु क्या रौदें मोय।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूंगी तोय ।।
मैं अपराधी जन्म का, नख- सिख भरा विकार।
तुम दाता दुःख भंजना, मेरी करो सम्हार।।
मार्ग चलते जो गिरा, ताकों नाहि दोष।
यह कबीरा बैठा रहे, तो सिर करड़े दोष।।
मूंड़ मुड़ाये हरि मिले,सब कोई लेय मुड़ाय।
बार-बार के मुड़ते, भेड़ न बैकुण्ठ जाय।।
मैं रोऊं सब जगत् को, मोको रोवे न कोय।
मोको रावे सोचना, जो शब्द बोय ही होय।।
मन मथुरा दिल द्वारिका, काया कासी जाणि।
दसवां द्वारा देहुरा, तामै जोति पिछिरिग।।
मेरे संगी दोइ जरग, एक वैष्णौ एक राम।
वो है दाता मुक्ति का, वो सुमिरावै नाम ।।
मथुरा जाउ भावे द्वारिका, भावै जाउ जगनाथ।
साथ-संगति हरि-भागति बिन-कछु न आवै हाथ।।
मन मथुरा दिल द्वारिका, काया कासी जाणि।
दसवां द्वारा देहुरा, तामै जोति पिछिरिग।।
मात-पिता सुत इस्तरी आलस्य बन्धु कानि।
साधु दरष को जब चलै, ये अटकावै आनि ।।
पूत पियारौ पिता कौं, गौहनि लागो घाइ।
लोभ-मिठाई हाथ दे, आपण गयो भुलाई।।
फल कारण सेवा करे, करे न मन से काम ।
कहे कबीर सेवक नहीं, चहै चैगुना दाम।।
बलिहारी गुरू आपनो, घड़ी-घड़ी सौ सौ बार ।
मानुष से देवत किया करत न लागी बार।।
बूंद पड़ी जो समुद्र में, ताहि जाने सब कोय।
समुद्र समाना बूंद में, बूझे बिरला कोय।।
बाहर क्या दिखराइये, अन्तर जपिए राम।
कहा काज संसार से, तुझे धनी से काम।
बानी से पहचानिए, साम चोर की घात।
अन्दर की करनी से सब, निकले मुंह की बात ।।
बलिहारी गुर आपणौ, घौंहाड़ी कै बार।
जिनि भानिष तें देवता, करत न लागी बार।।
बिरह-भुवगम तन बसै मंत्र न लागै कोइ।
राम-बियोगी ना जिवै जिवै तो बौरा होई ।।
ब्राहम्ण गुरू जगत् का, साधु का गुरू नाहिं।
उरझि-पुरझि करि भरि रह्या, चारिउं बेदा मांहि।।
बारी-बारी आपणीं, चले पियारे म्यंत।
तेरी बारी रे जिया, नेड़ी आवै निंत ।।
बिन सतगुरू उपदेष, सुर नर मुनि नहिं निस्तरे ।
ब्रह्या-विष्णु, महेष और सकल जिव को गिनै।।
बिरिया बीती बल घटा, केष पलटि भये और।
बिगरा काज संभारि ले, करि छूटने की ठौर।।


Kabir Das Ji ke Dohe In Hindi. | Kabir Das Quotes

साधु आवत देखिकर, हंसी हमारी देह।
मन्द भाग मट्टी भरे, कंकर हाथ लगाय।।
साधु आया पाहुना,मांगे चार रतन।
धूनी पानी साथरा, सरधा सेती अन्न।।
साधु आवत देखिके, मन में करै भरोर।
सो तो होसी चूह्ना, बसै गांव की ओर।।
साधु मिलै यह सब हलै, काल जाल जम चोट।
शीश नवावत ढ़हि परै, अघ पावन को पोट।।
साधु बिरछ सतज्ञान फल, शीतल शब्द विचार।
जग में होते साधु नहिं, जर भरता संसार।।
साधु बड़े परमारथी, शीतल जिनके अंग।
तपन बुझावै ओर की, देदे अपनो रंग ।।
संत ही में सत बांटई, रोटी में ते टूक।
कहे कबीर ता दास को, कबहूं न आवे चूक ।।
सुख सागर का शील है, कोई न पावे थाह।
शब्द बिना साधु नहीं, द्रव्य बिना नहीं शाह ।।
सोना,सज्जन,साधु जन, टूट जुड़ै सौ बार।
दुर्जन कुम्भ कुम्हार के, ऐके धका दरार ।।
साधु गांठि न बांधई, उदर समाता लेय।
आगे-पीछे हरि खड़े जब भोगे तब देय।।
सुमरण की सुब्यों करो ज्यों गागर पनिहार।
होल-होले सुरत में, कहैं कबीर विचार।।
सब आए इस एक में, डाल-पात फल-फल।
कबिरा पीछा क्या राह, गह पकड़ी जब मूल।।
सिंह अकेला बन रहे, पलक-पलक कर दौर।
जैसा बन है आपना, तैसा बन है और।।
सांई आगे सांच है, सांई सांच सुहाय।
चाहे बोले केस रख, चाहे घौंट भुण्डाय।।
सन्त पुरूष की आरसी, सन्तों की ही देह।
लखा जो चहे अलख को, उन्हीं में लख लेह।।
सांई ते सब होते है, बन्दे से कुछ नाहिं ।
राई से पर्वत करे, पर्वत राई माहिं ।।
साधु सती और सूरमा, इनकी बात अगाध।
आषा छोड़े देह की, तन की अनथक साध।।
साईं आगे सांच है, साईं सांच सुहाय।
चाहे बोले केस रख, चाहे घौंट मुण्डाय।।
सुखिया सब संसार है, खावै और सोवे।

दुखिया दास कबीर है, जागै अरू रौवे।।
सतगुरू सम कोई, नहीं सात दीप नौ खण्ड।
तीन लोक न पाइये, अरू इक्कीस ब्रहम्ण्ड।।
सतगुरू मिले जु सब मिले, न तो मिला न कोय।
माता-पिता सुत बांधवा ये तो घर होय।।
मन मैला तन ऊजरा, बगुला कपटी अंग।
तासों तो कौवा भला, तन मन एकहि रंग ।।
मन दिया कहूं और ही, तन साधुन के संग ।
कहैं कबीर कोरी गजी, कैसे लागै रंग।।
मूरख को समुझावते, ज्ञान गांठि का जाय।
कोयला होय न ऊजला, सौ मन साबुन लाय।।
मैं सोचों हित जानिके, कठिन भयो है काठ।
ओछी संगत नीच की सरि पर पाड़ी बाट।।
मरेंगे मरि जायंगे, कोई न लेगा नाम ।
ऊजड़ जाय बसायेंगे, छेड़ि बसन्ता गाम।।
ये तो घर है प्रेम का, खाला का घर नाहिं।
सीस उतारे भुंई धरे, तब बैठें घर माहिं ।।
या दुनियां में आ कर, छांड़ि देय तू ऐंठ ।
लेना हो तो लेइले, उठी जात है पेंठ ।।
यह मन ताको दीजिये, सांचा सेवक होय।
सिर ऊपर आरा सहै, तऊ न दूजा होय।।
वेद थके, ब्रह्मा थके, याके सेस महेस।
गीता हूं कि गत नहीं, सन्त सन्त किया परवेस।।

Kabir Das Dohe In Hindi | Kabir Das Quotes

साखी शब्द बहुतै सुना, मिटा न मन का दाग।
संगति सो सुधरा नहीं, ताका बड़ा अभाग।।
साध संग अन्तर पड़े, यह मति कबहु न होय।
कहैं कबीर तिहु लोक में, सुखी न देखा कोय।।
संत कबीर गुरू के देष में, बसि जावै जो कोय।
कागा ते हंसा बनै, जाति बरन कुछ खोय।।
साखी शब्द बहुतक सुना, मिटा न मन क मोह।
पारस तक पहुंचा नहीं, रहा लोहा का लोह।।
सज्जन सों सज्जन मिले, होवे दो दो बात।
गहदा सो गहदा मिले, खावे दो दो लात।।
साधू संगत परिहरै, करै विषय का संग।
कूप खनी जल बावरे, त्याग दिया जल गंग।।
सुख देवै दुख को हरे,दूर करे अपराध।
कहै कबीर वह कब मिले, परम सनेही साध।।
साधुन की झुपड़ी भली, न साकट के गांव ।
चंदन की कुटकी भली, ना बूबल बनराव।।
साधु सिद्ध बहु अन्तरा, साधु मता परचण्ड।
सिद्ध जु वारे आपको, साधु तारि नौ खण्ड ।।
सन्त मिले जानि बीछुरों, बिछुरों यह मम प्रान।
शब्द सनेही ना मिले, प्राण देह में आन।।
साधु ऐसा चाहिए, दुखै दुखावै नाहिं ।
पान फूल छेड़े नहीं,बसै बगीचा माहिं ।
साधु कहावत कठिन है, लम्बा पेड़ खजूर ।
चढ़े तो चाखै प्रेम रस, गिरै तो चकनाचूर।।
साधु सोई जानिये, चलै साधु की चाल।
परमारथ राता रहै, बोलै बचन रसाल।।
साधु ऐसा चाहिए, जाके ज्ञान विवेक ।
बाहर मिलते सों मिलें, अन्तर सबसों एक ।।
सन्त न छाड़ै सन्तता, कोटिक मिलै असंत ।
मलय भुवंगय बेधिया, शीतलता न तजन्त ।।
सन्त समागम परम सुख, जान अल्प सुख और।
मान सरोवर हंस है, बगुला ठौरे ठौरे।।
सन्त मिले सुख ऊपजै दुष्ट मिले दुख होय।
सेवा कीजै साधु की, जन्म कृतारथ होय।।
संगत कीजै साधु की कभी न निष्फल होय।
लोहा पारस परस ते, सो भी कंचन होय।।
सो दिन गया इकारथे, संगत भई न सन्त ।
ज्ञान बिना पशु जीवना, भक्ति बिना भटकन्त ।।
साधु दरषन महाफल, कोटि यज्ञ फल लेह ।
इक मन्दिर को का पड़ी, नगर शुद्ध करिलेह।।
साधु दरष को जाइये, जेता धरिये पांय।
डग-डग पे असमेध जग, है, कबीर समुझाय।।
सतगुरू को माने नहीं, अपनी कहै बनाय।
कहै कबीर क्या कीजिये, और मता मन जाय।।
सतगुरू खोजो सन्त, जोव काज को चाहहु।
मेटो भव को अंक, आवा गवन निवारहु ।।
सदुरू ऐसा कीजिये, लोभ मोह भ्रम नाहिं।
दरिया सो न्यारा रहे, दीसे दरिया माहि।।
सोचे गुरू के पक्ष में, मन को दे ठहराय।
चंचल से निष्चल भया, नहिं आवै नहीं जाय।।
स्वामी सेवक होय के, मनही में मिलि जाय ।
चतुराई रीझै नहीं, रहिये मन के माय।।
सत को खोजत मैं फिरूं, सतिया न मलै न कोय।
जब सत को सतिया मिले, विष तजि अमृत होय।
साधु चलत रो दीजिये, कीजै अति सनमान।
कहैं कबीर कुछ भेट धरूं, अपने बित्त अनमान।।
सुनिये पार जो पाइया, छाजन भोजन आनि।
कहै कबीर संतन को, देत न कीजै कानि।।
साधु आवत देखिकर, हंसी हमारी देह।
माथा का ग्रह उतरा, नैनन बढ़ा सनेह।।

Kabir Ji ke Dohe In Hindi | Kabir Das Quotes

कबीरा सोया क्या करे, उठि न भजे भगवान।
जम जब घर ले जायेगें, पड़ी रहेगी म्यान ।।
क्या भरोसा देह का, बिनस जात छिन मांह।
सांस-सांस सुमिरन करो और यतन कुछ नांह ।।
कुटिल वचन सबसे बुरा, जारि कर तन हार।
साधु वचन जल रूप, बरसे अमृत धार ।।
कामी,क्रोधी, लालची, इनसे भक्ति न होय।
भक्ति करे कोई सूरमा, जाति वरन कुल खोय ।।
कबीरा सोया क्या करे, उठि न भजे भगवान।
जम जब घर ले जाएंगे, पड़ा रहेगा म्यान।।
काल करे सो आज कर, सबहि सात तुव साथ।
काल काल तू क्या करे काल काल के हाथ।।
कुटल बचन सबसे बुरा, जासे होत न हार।
साधु वचन जल रूप है, बरसे अम्रत धार।।
करता था सो क्यों किया, अब कर क्यों पछिताय।
बोया पेड़ बबूल का, आम कहां से खाय।।
कबीरा सोता क्या करे, जागो जपो मुरार।
एक दिना है सोवना, लांबे पांव पसार।।
संगति ऐसी कीजिये, सरसा नर सो संग ।
लर-लर लोई हेत है, तऊ न छौड़ रंग।।
साधु संग गुरू भक्ति अरू, बढ़त बढ़त बढ़ि जाय।
ओछी संगत खर शब्द रू, घटत-घटत घटि जाय।।
संगत कीजै साधु की, होवे दिन -दिन हेत।
साकुट काली कामली, धोते होय न सेत।।
सन्त सुरसरी गंगा जल, आनि पखारा अंग ।
मैले से निरमल भये, साधू जन को संग ।।
सतगुरू शब्द उलंघ के, जो सेवक कहूँ जाय।
जहां जाय तहं काल है, कहैं कबीर समझाय।।
सेवक सेवा में रहै, सेवक कहिये सोय।
कहैं कबीर सेवा बिना, सेवक कभी न होय।।
सातों शब्द जु बाजते,घर-घर होते |
ते मन्दिर खाले पड़े, बैठने लागे काग।।
समुझाये समुझे नहीं, धरे बहुत अभिमान।
गुरू का शब्द उछेद है, कहत सकल हम जान।।
संसै काल शरीर में, विषय काल है दूर।
जाको कोई जाने नहीं, जारि करै सब धूर।।
संसै काल शरीर में, जारि करै सब धूरि।
काल से बांचे दास जन जिन पै द्दाल हुजूर ।।
सब जग डरपै काल सों, ब्रह्या, विष्णु महेष।
सुर नर मुनि औ लोक सब, सात रसातल सेस।।
सह ही में सत बाटई, रोटी में ते टूक।
कहैं कबीर ता दास को, कबहुं न आवे चूक।।
सन्त मता गजराज का, चालै बन्धन छोड़।
जग कुत्ता पीछे फिरैं, सुनै न वाको सोर।।
साधु ऐसा चाहिए, जहां रहै तहं गैब।
बानी के बिस्तार में, ताकूं कोटिक ऐब।।
सन्त होत हैं, हेत के, हेतु तहां चलि जाय।
कहैं कबीर के हेत बिन, गरज कहां पतियाय।।
साधु-ऐसा चाहिए, जाका पूरा मंग।
विपत्ति पड़े छाड़ै नहीं, चढ़े चैगुना रंग।।
सन्त सेव गुरू बन्दगी, गुरू सुमिरन वैराग।
ये ता तबही पाइये, पूरन मस्तक भाग ।।
सरवर तरवर सन्त जन, चैथा बरसे मेह।
परमारथ के कारने, चारों धारी देह।।
साधु भया तो क्या भया, माला पहिरी चार।
बाहर भेष बनाइया, भीतर भरी भंगार ।।
सहत मिलै सो दूध है, मांगि मिलै सा पानि।
कहैं कबीर वह रक्त है, जामें एंचातानि।।
साधुन के सतसंग से, थर-थर कांपै देह।
कबहुं भाव कुभाव ते, जनि मिटि जाय सनेह ।।

Hindi Kabir Das Ji Ke Dohe | Kabir Das Quotes

काल करे सो आज कर, आज करे सो अब ।
पल में प्रलय होएगी, बहुरि करेगा कब ।।
एसी बाणी बोलिये, मन का आपा खोइ।
औरन को सीतल करै, आपौ सीतल होइ।।
जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहिं।
प्रेम गली अति सॉंकरी, तामें दो न समाहिं।।
हीरा पड़ा बाज़ार में, रहा छार लपटाय।
बहुतक मूरख चलि गए, पारख लिया उठाय॥
बडा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर।
पंथी को छाया नही फल लागे अति दूर ॥
साँई इतना दीजिए जामें कुटुंब समाय ।
मैं भी भूखा ना रहूँ साधु न भुखा जाय॥
दुःख में सुमिरन सब करे सुख में करै न कोय।
जो सुख में सुमिरन करे दुःख काहे को होय ॥
दुर्बल को न सताइए, जाकि मोटी हाय।
बिना जीव की हाय से, लोहा भस्म हो जाय ।।
चलती चाकी देख के, दिया कबीरा रोई।
दो पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोई ॥
कोटि-कोटि तीरथ करै, कोटि कोटि करू धाय।
जब लग साधु न सेवई, तब लग काचा काम ।।
गुरू को सिर राखिये, चलिये आज्ञा माहिं ।
कहै कबीर ता दास को, तीन लोक भय नहिं ।।
गुरू बिचारा क्या करै, शब्द न लागै अंग।
कहैं कबीर मैल्की गाजी, कैसे लागू रंग।।
कबीरा संगत साधु की, नित प्रति कीर्ज जाय।
दुरमति दूर बहावसी, देषी सुमति बताय।।
कबीरा संगति साधु की, जो करि जाने कोय।
सकल बिरछ चन्दन भये, बांस न चन्दन होय ।।
कोयला भी हो ऊजला, जरि बरि है जो सेव।
मूरख होय न ऊजला, ज्यों कालर का खेत।
कहैं कबीर गुरू प्रेम बस, क्या नियरै क्या दूर।
जाका चित जासों बसै सौ तेहि सदा हजूर।
कबीर गुरू की भक्ति करूं, तज निषय रस चैंज ।
बार-बार नहिं पाइये, मानुष जन्म की मौज ।।
काल पाय जब ऊपजो, काल पाय सब जाय।
काल पाय सबि बिनिष है, काल काल कहं खाय ।।
काल काम तत्काल है, बुरा न कीजै कोय।
भले भलई पे लहै, बुरे बुराई होय।
कहै कबीर देय तू, सब लग तेरी देह ।
देह खहे होय जायगी, कौन कहेगा देह।।
गुरू सों ज्ञान जु लीजिये सीस दीजिए दान।
बहुतक भोदूं बहि गये, राखि जीव अभिमान ।।
गुरू को कीजै दण्डव कोटि-कोटि परनाम ।
कीट न जाने भृगं केा , गुरू करले आप समान।।
गुरू बिचारा क्या करे, हृदय भया कठोर।
नौ नेजा पानी चढ़ा पथर न भीजी कोर।।
गुरू कीजिए जानि के, पानी पीजै छानि ।
बिना विचारे गुरू करे, परे चैरासी खानि।।
उठा बगुला प्रेम का तिनका चढ़ा अकास।
तिनका तिनके से मिला तिन का तिन के पास॥
दान दिए धन ना घते, नदी ने घटे नीर।
अपनी आंखो देख लो, यों क्या कहे कबीर
एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में पुनि आध।
कबीर सगंत साधु की, करै कोटि अपराध।।
एक दिन ऐसा होयगा, सबसों परै बिछोह ।
राजा राना राव एक, साबधान क्यों नहिं होय।।
ऐसा कोई न मिला, जासू कहूं निसंक।
जासो हिरदा की कहूं, सो फिर मारे डंक ।।

Kabir Das Ji Ke Dohe In Hindi With Meaning | Kabir Das Quotes

जाति न पूछो साधु की, पूछि लीजिए ज्ञान।
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान ।।
अर्थ :- सज्जन की जाति न पूछ कर उसके ज्ञान को समझना चाहिए. तलवार का मूल्य होता है न कि उसकी मयान का – उसे ढकने वाले खोल का।
कबीर लहरि समंद की, मोती बिखरे आई |बगुला भेद न जानई, हंसा चुनी-चुनी खाई।|
अर्थ :- कबीर कहते हैं कि समुद्र की लहर में मोती आकर बिखर गए. बगुला उनका भेद नहीं जानता, परन्तु हंस उन्हें चुन-चुन कर खा रहा है. इसका अर्थ यह है कि किसी भी वस्तु का महत्व जानकार ही जानता है।
जब गुण को गाहक मिले, तब गुण लाख बिकाई |
जब गुण को गाहक नहीं, तब कौड़ी बदले जाई।|
अर्थ :- कबीर कहते हैं कि जब गुण को परखने वाला गाहक मिल जाता है तो गुण की कीमत होती है. पर जब ऐसा गाहक नहीं मिलता, तब गुण कौड़ी के भाव चला जाता है।
कबीर कहा गरबियो, काल गहे कर केस।
ना जाने कहाँ मारिसी, कै घर कै परदेस।|
अर्थ :- कबीर कहते हैं कि हे मानव ! तू क्या गर्व करता है? काल अपने हाथों में तेरे केश पकड़े हुए है. मालूम नहीं, वह घर या परदेश में, कहाँ पर तुझे मार डाले।
पानी केरा बुदबुदा, अस मानुस की जात।
एक दिना छिप जाएगा,ज्यों तारा परभात॥
अर्थ :- कबीर का कथन है कि जैसे पानी के बुलबुले, इसी प्रकार मनुष्य का शरीर क्षणभंगुर है।जैसे प्रभात होते ही तारे छिप जाते हैं, वैसे ही ये देह भी एक दिन नष्ट हो जाएगी।
हाड़ जलै ज्यूं लाकड़ी, केस जलै ज्यूं घास।
सब तन जलता देखि करि, भया कबीर उदास।
अर्थ :- यह नश्वर मानव देह अंत समय में लकड़ी की तरह जलती है और केश घास की तरह जल उठते हैं. सम्पूर्ण शरीर को इस तरह जलता देख, इस अंत पर कबीर का मन उदासी से भर जाता है।
जो उग्या सो अन्तबै, फूल्या सो कुमलाहीं।
जो चिनिया सो ढही पड़े, जो आया सो जाहीं।
अर्थ :- इस संसार का नियम यही है कि जो उदय हुआ है,वह अस्त होगा। जो विकसित हुआ है वह मुरझा जाएगा. जो चिना गया है वह गिर पड़ेगा और जो आया है वह जाएगा।
झूठे सुख को सुख कहे, मानत है मन मोद.
खलक चबैना काल का, कुछ मुंह में कुछ गोद.
अर्थ :- कबीर कहते हैं कि अरे जीव ! तू झूठे सुख को सुख कहता है और मन में प्रसन्न होता है? देख यह सारा संसार मृत्यु के लिए उस भोजन के समान है, जो कुछ तो उसके मुंह में है और कुछ गोद में खाने के लिए रखा है।
ऐसा कोई ना मिले, हमको दे उपदेस।
भौ सागर में डूबता, कर गहि काढै केस।|
अर्थ :- कबीर संसारी जनों के लिए दुखित होते हुए कहते हैं कि इन्हें कोई ऐसा पथप्रदर्शक न मिला जो उपदेश देता और संसार सागर में डूबते हुए इन प्राणियों को अपने हाथों से केश पकड़ कर निकाल लेता।
संत ना छाडै संतई, जो कोटिक मिले असंत |
चन्दन भुवंगा बैठिया, तऊ सीतलता न तजंत।|
अर्थ :- सज्जन को चाहे करोड़ों दुष्ट पुरुष मिलें फिर भी वह अपने भले स्वभाव को नहीं छोड़ता. चन्दन के पेड़ से सांप लिपटे रहते हैं, पर वह अपनी शीतलता नहीं छोड़ता।
कबीर तन पंछी भया, जहां मन तहां उडी जाइ।
जो जैसी संगती कर, सो तैसा ही फल पाइ।|
अर्थ :- कबीर कहते हैं कि संसारी व्यक्ति का शरीर पक्षी बन गया है और जहां उसका मन होता है, शरीर उड़कर वहीं पहुँच जाता है। सच है कि जो जैसा साथ करता है, वह वैसा ही फल पाता है।
तन को जोगी सब करें, मन को बिरला कोई.
सब सिद्धि सहजे पाइए, जे मन जोगी होइ।
अर्थ :- शरीर में भगवे वस्त्र धारण करना सरल है, पर मन को योगी बनाना बिरले ही व्यक्तियों का काम है य़दि मन योगी हो जाए तो सारी सिद्धियाँ सहज ही प्राप्त हो जाती हैं।
कबीर सो धन संचे, जो आगे को होय।
सीस चढ़ाए पोटली, ले जात न देख्यो कोय।|
अर्थ :- कबीर कहते हैं कि उस धन को इकट्ठा करो जो भविष्य में काम आए. सर पर धन की गठरी बाँध कर ले जाते तो किसी को नहीं देखा।
माया मुई न मन मुआ, मरी मरी गया सरीर।
आसा त्रिसना न मुई, यों कही गए कबीर ।|
अर्थ :- कबीर कहते हैं कि संसार में रहते हुए न माया मरती है न मन. शरीर न जाने कितनी बार मर चुका पर मनुष्य की आशा और तृष्णा कभी नहीं मरती, कबीर ऐसा कई बार कह चुके हैं।
मन हीं मनोरथ छांड़ी दे, तेरा किया न होई।
पानी में घिव निकसे, तो रूखा खाए न कोई।|
अर्थ :- मनुष्य मात्र को समझाते हुए कबीर कहते हैं कि मन की इच्छाएं छोड़ दो , उन्हें तुम अपने बूते पर पूर्ण नहीं कर सकते। यदि पानी से घी निकल आए, तो रूखी रोटी कोई न खाएगा.

Kabir Das Dohe In Hindi With Meaning | Kabir Das Quotes

गुरु गोविंद दोनों खड़े, काके लागूं पाँय ।
बलिहारी गुरु आपनो, गोविंद दियो मिलाय ॥
अर्थ :- कबीर कहते हैं की गुरु का स्थान ईश्वर से भी ऊपर है. यदि दोनों एक साथ खड़े हो तो किसे पहले प्रणाम करना चाहिए. किन्तु गुरु की शिक्षा के कारण ही भगवान् के दर्शन हुए हैं।
कबीरा खड़ा बाज़ार में, मांगे सबकी खैर|
ना काहू से दोस्ती,न काहू से बैर।
अर्थ :- इस संसार में आकर कबीर अपने जीवन में बस यही चाहते हैं कि सबका भला हो और संसार में यदि किसी से दोस्ती नहीं तो दुश्मनी भी न हो ।|
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।
अर्थ :- बड़ी बड़ी पुस्तकें पढ़ कर संसार में कितने ही लोग मृत्यु के द्वार पहुँच गए, पर सभी विद्वान न हो सके. कबीर मानते हैं कि यदि कोई प्रेम या प्यार के केवल ढाई अक्षर ही अच्छी तरह पढ़ ले, अर्थात प्यार का वास्तविक रूप पहचान ले तो वही सच्चा ज्ञानी होगा.
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिल्य कोए।
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोए॥
अर्थ :- जब मैं इस संसार में बुराई खोजने चला तो मुझे कोई बुरा न मिला. जब मैंने अपने मन में झाँक कर देखा तो पाया कि मुझसे बुरा कोई नहीं है.
निंदक नियरे राखिए, ऑंगन कुटी छवाय।
बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।।
अर्थ :- जो हमारी निंदा करता है, उसे अपने अधिकाधिक पास ही रखना चाहिए। वह तो बिना साबुन और पानी के हमारी कमियां बता कर हमारे स्वभाव को साफ़ करता है.
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय,
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय।
अर्थ :- मन में धीरज रखने से सब कुछ होता है. अगर कोई माली किसी पेड़ को सौ घड़े पानी से सींचने लगे तब भी फल तो ऋतु आने पर ही लगेगा !
माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर,
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।
अर्थ :- कोई व्यक्ति लम्बे समय तक हाथ में लेकर मोती की माला तो घुमाता है, पर उसके मन का भाव नहीं बदलता, उसके मन की हलचल शांत नहीं होती. कबीर की ऐसे व्यक्त को सलाह है कि हाथ की इस माला को फेरना छोड़ कर मन के मोतियों को बदलो या फेरो.
बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि।
हिये तराजू तौलि के, तब मुख बाहर आनि।।
अर्थ :- यदि कोई सही तरीके से बोलना जानता है तो उसे पता है कि वाणी एक अमूल्य रत्न है। इसलिए वह ह्रदय के तराजू में तोलकर ही उसे मुंह से बाहर आने देता है.
साधु ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय।
सार-सार को गहि रहै थोथा देई उडाय॥
अर्थ :- इस संसार में ऐसे सज्जनों की जरूरत है जैसे अनाज साफ़ करने वाला सूप होता है. जो सार्थक को बचा लेंगे और निरर्थक को उड़ा देंगे।
तिनका कबहुँ ना निन्दिये, जो पाँवन तर होय,
कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय।
अर्थ :- कबीर कहते हैं कि एक छोटे से तिनके की भी कभी निंदा न करो जो तुम्हारे पांवों के नीचे दब जाता है. यदि कभी वह तिनका उड़कर आँख में आ गिरे तो कितनी गहरी पीड़ा होती है ।
दोस पराए देखि करि, चला हसन्त हसन्त,
अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत।
अर्थ :- यह मनुष्य का स्वभाव है कि जब वह दूसरों के दोष देख कर हंसता है, तब उसे अपने दोष याद नहीं आते जिनका न आदि है न अंत.
कुटिल वचन सबतें बुरा, जारि करै सब छार।
साधु वचन जल रूप है, बरसै अमृत धार।।
अर्थ :- संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि कटु वचन बहुत बुरे होते हैं और उनकी वजह से पूरा बदन जलने लगता है। जबकि मधुर वचन शीतल जल की तरह हैं और जब बोले जाते हैं तो ऐसा लगता है कि अमृत बरस रहा है।
मुख से नाम रटा करैं, निस दिन साधुन संग।
कहु धौं कौन कुफेर तें, नाहीं लागत रंग॥
अर्थ :- साधुओं के साथ नियमित संगत करने और रात दिन भगवान का नाम जाप करते हुए भी उसका रंग इसलिये नहीं चढ़ता क्योंकि आदमी अपने अंदर के विकारों से मुक्त नहीं हो पाता।
जैसा भोजन खाइये , तैसा ही मन होय।
जैसा पानी पीजिये, तैसी वाणी होय॥
अर्थ :- संत शिरोमणि कबीरदास कहते हैं कि जैसा भोजन करोगे, वैसा ही मन का निर्माण होगा और जैसा जल पियोगे वैसी ही वाणी होगी अर्थात शुद्ध-सात्विक आहार तथा पवित्र जल से मन और वाणी पवित्र होते हैं इसी प्रकार जो जैसी संगति करता है वैसा ही बन जाता है.
साधू भूखा भाव का, धन का भूखा नाहिं।
धन का भूखा जी फिरै, सो तो साधू नाहिं॥
अर्थ :- कबीर दास जीं कहते हैं कि संतजन तो भाव के भूखे होते हैं, और धन का लोभ उनको नहीं होता । जो धन का भूखा बनकर घूमता है वह तो साधू हो ही नहीं सकता।
जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ।
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।।
अर्थ :- जो प्रयत्न करते हैं, वे कुछ न कुछ वैसे ही पा ही लेते हैं जैसे कोई मेहनत करने वाला गोताखोर गहरे पानी में जाता है और कुछ ले कर आता है. लेकिन कुछ बेचारे लोग ऐसे भी होते हैं जो डूबने के भय से किनारे पर ही बैठे रह जाते हैं और कुछ नहीं पाते।
अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप,
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।
अर्थ :- न तो अधिक बोलना अच्छा है, न ही जरूरत से ज्यादा चुप रहना ही ठीक है. जैसे बहुत अधिक वर्षा भी अच्छी नहीं और बहुत अधिक धूप भी अच्छी नहीं है।
दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार,
तरुवर ज्यों पत्ता झड़े, बहुरि न लागे डार।
अर्थ :- इस संसार में मनुष्य का जन्म मुश्किल से मिलता है. यह मानव शरीर उसी तरह बार-बार नहीं मिलता जैसे वृक्ष से पत्ता झड़ जाए तो दोबारा डाल पर नहीं लगता।
हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना,
आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मुए, मरम न कोउ जाना।
अर्थ :- कबीर कहते हैं कि हिन्दू राम के भक्त हैं और तुर्क (मुस्लिम) को रहमान प्यारा है. इसी बात पर दोनों लड़-लड़ कर मौत के मुंह में जा पहुंचे, तब भी दोनों में से कोई सच को न जान पाया।
कहत सुनत सब दिन गए, उरझि न सुरझ्या मन।
कही कबीर चेत्या नहीं, अजहूँ सो पहला दिन।
अर्थ :- कहते सुनते सब दिन निकल गए, पर यह मन उलझ कर न सुलझ पाया. कबीर कहते हैं कि अब भी यह मन होश में नहीं आता. आज भी इसकी अवस्था पहले दिन के समान ही है।

Kabir Das Ji Ke Dohe In Hindi | Kabir Das Quotes

चाह मिटी, चिंता मिटी मनवा बेपरवाह ।
जिसको कुछ नहीं चाहिए वह शहनशाह॥ 
माटी कहे कुम्हार से, तु क्या रौंदे मोय ।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूगी तोय ॥
माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर ।
कर का मन का डार दे, मन का मनका फेर ॥
तिनका कबहुँ ना निंदये, जो पाँव तले होय ।
कबहुँ उड़ आँखो पड़े, पीर घानेरी होय ॥
गुरु गोविंद दोनों खड़े, काके लागूं पाँय ।
बलिहारी गुरु आपनो, गोविंद दियो मिलाय ॥
सुख मे सुमिरन ना किया, दु:ख में करते याद ।
कह कबीर ता दास की, कौन सुने फरियाद ॥
साईं इतना दीजिये, जा मे कुटुम समाय ।
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु ना भूखा जाय ॥
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय ।
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय ॥
कबीरा ते नर अँध है, गुरु को कहते और ।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर ॥
माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर ।
आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर ॥
रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय ।
हीरा जन्म अमोल था, कोड़ी बदले जाय ॥
दुःख में सुमिरन सब करे सुख में करै न कोय।
जो सुख में सुमिरन करे दुःख काहे को होय ॥
बडा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर।
पंथी को छाया नही फल लागे अति दूर ॥
साधु ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय।
सार-सार को गहि रहै थोथा देई उडाय॥
साँई इतना दीजिए जामें कुटुंब समाय ।
मैं भी भूखा ना रहूँ साधु न भुखा जाय॥
जो तोको काँटा बुवै ताहि बोव तू फूल।
तोहि फूल को फूल है वाको है तिरसुल॥
उठा बगुला प्रेम का तिनका चढ़ा अकास।
तिनका तिनके से मिला तिन का तिन के पास॥
सात समंदर की मसि करौं लेखनि सब बनराइ।
धरती सब कागद करौं हरि गुण लिखा न जाइ॥
साधू गाँठ न बाँधई उदर समाता लेय।
आगे पाछे हरी खड़े जब माँगे तब देय॥ 

Thursday, 10 April 2014

Popular Dohe of Sant Kabir

Chalti Chakki Dekh Kar, Diya Kabira Roye
Do Paatan Ke Beech Mein,Sabit Bacha Na Koye


Translation

Watching the grinding stones, the Light Kabir Cries
Inside the Two Stones, no one survives

Meaning:Kabir sees the grinding stones as the duality that we live in. Heaven and earth, Good and Bad, Male and Female, High and Low - all around is duality. This play of opposites, this Chalti Chakki (moving mill) gets everyone, no one is save from in it's powerful grip.

Whoever enters this duality is crushed. No one survives. Kabir cries because rarely, if ever, does one see the oneness, the divinity, behind the duality.




Bura Jo Dekhan Main Chala, Bura Naa Milya Koye
Jo Munn Khoja Apnaa, To Mujhse Bura Naa Koye

Translation


I went on the search for the Bad Guy, Bad Guy I couldn't find
When I searched my mind, Non one is Nastier then Me

Meaning
This Doha is about observing ones own mind. Kabir says that he searched the world for the bad guy, the real evil person but he couldn't find the evil person no matter where he looked. Then he looked within at his own thinking process, his own mind. The he found the real evil person who lived in his mind, unchecked. When we accuse, condemn another, it is our mind that is doing the finger pointing, the other person is probably innocent or the victim of his circumstances. Were we to inhabit the condemned persons body, live his life, have his conditioning, then we too would behave and act the same.




Kaal Kare So Aaj Kar, Aaj Kare So Ub
Pal Mein Pralaya Hoyegi, Bahuri Karoge Kub

TranslationTomorrows work do today, today's work now
If the moment is lost, how will the work be done?

Meaning

Do the work that needs to be done now. There is no other time then now.




Aisee Vani Boliye, Mun Ka Aapa Khoye
Apna Tan Sheetal Kare, Auran Ko Sukh Hoye

Translation

Speak such words, you lose the minds Ego
Body remains composed, Others Find Peace

Meaning
In speech use such words that your ego is eliminated. Don't brag, don't gloat, don't make yourself out to be big, important, rich or anything else that the ego attaches to. Building the Ego takes energy from the body, takes away the bodies composure. If ego is lost in ones speech, the listener finds peace from listening to it.

Monday, 7 April 2014

Kabir Das Ji ke Dohe : Kabira Kiya Kutch Na Hote Hai, Ankiya Sab Hoye



Kabira Kiya Kutch Na Hote Hai, Ankiya Sab Hoye
Jo Kiya Kutch Hote Hai, Karta Aur Koye

Translation

On Kabir's saying nothing happens , What I don't do does come to pass
If anything happens as if my doing, It is done by someone else

Meaning

All things happen as per Gods wish, it just seems that we are doing them.




Jyon Naino Mein Putli, Tyon Maalik Ghat Mahin
Moorakh Log Na Janhin, Baahar Dhudhan Jahin

Translation


Like the pupil is in the eyes , Your God lives inside you,
The ignorant don't know this, they search Him on the outside

MeaningGod is within, the ignorant look for Him on the outside.




Jab Tun Aaya Jagat Mein, Log Hanse Tu Roye
Aise Karni Na Kari, Pache Hanse Sab Koye

Translation


When you came in to this world , Everyone laughed while you cried
Don't do such work, That they laugh when you are gone

Meaning
Do good work.




Pehle Agan Birha Ki, Pachhe Prem Ki Pyas
Kahe Kabir Tub Janiye, Naam Milan Ki Aaas

Translation


First the pain of separation, then the thirst for Love
Says Kabir, only then will you know Joy of the Union.

Meaning
First the pain of separation, then love. Only from the pain of separation do we feel the pangs of love. There is then hope of union. This is the story of life - the lovers meeting, separating, the pangs of love and the urge for union and the eventual union. In Sufi tradition it is a reflection of man and God - realization of the separation from God, the pangs of love and urge for union with God, and the eventual joy of union.